शास्त्रों के अनुसार चारो वर्णों को सामान स्तर प्रदान किया
गया है, किन्तु धर्म के
ठेकेदारों द्वारा अपने आप को उच्च सिद्ध करने के लिए, दूसरो को हिन्
सिद्ध करने की चेष्टा की गयी है. जबकि गीता इस विषय में पूरी तरह स्पष्ट करती है
कि मनुष्य योनी में जब जीव का प्रथम बार जन्म होता है तब प्रत्येक मनुष्य उस परम
अविनाषी, अकाल परम तत्त्व
सत-चित्त - आनंद अर्थात सच्चिदानन्द के स्वभाव को साथ लेकर जन्मता है, फिर वह कर्म करता
हुआ अपना जो निज भाव अर्थात स्वभाव बना लेता है उसी के अनुसार उसका विभिन्न वर्णों
में जन्म होता है. इस प्रकार किसी भी वर्ण में उत्पन्न हुआ व्यक्ति छोटा या बड़ा,पुण्ययोनि या
पापयोनि, और पापी या
धर्मात्मा नहीं होता है. यधपि यह सिद्धांत सर्वोपरी एवं सर्वमान्य, व्यवहारिक और
वैज्ञानिक मापदंडों के मुताबिक खरा है |फिर भी वर्ण रचना या उत्त्पति के बारे में अन्य ग्रन्थ क्या
कहते है इस पर भी विचार कर लेना चाहिए.उपनिषद:----वृह्दारन्यक उपनिषद अध्याय एक
ब्रह्माण ४ मयूल्लेख है कि,"ब्रह्म व इदमग्र
आसीदेकमेव तदेकं, सन्न व्यभवत, तच्छ्रेयोरूप-मृत्यसृजत
क्षत्रं यान्येतानि देवत्रा क्षत्राणीन्द्रों वरुणः सोमो रुद्रः पर्जन्यो यमो
मृत्युरीशान इति. तस्मात् क्षत्रात्परम नास्ति तस्मादब्रह्माण;क्षत्रियमधस्तादुपास्ते
राजसूये क्षत्र एव तधशो दधाति सैषा क्षत्रस्य योनिर्यदब्रह्म. तस्माद्याद्यपि राजा
परमताम गच्छति ब्रह्मैवांतत उपनिश्रायति स्वां योनि य उ एनं हिनस्ति स्वां स योनि
मृच्छति स पापीयान्भवति यथा श्रेयाँ सँ हिँ सित्वा !!११!!" आरंभ में यह एक
ब्रह्म ही था. अकेले होने के कारन वह विभुतियुक्त कर्म करने में समर्थ नहीं हुआ
था. उसने अतिसयता से "क्षत्र"इस प्रशस्त रूप कि रचना की|अर्थात देवताओं
में क्षत्रिय जो यह इन्द्र,वरुण, सोम, रूद्र मेघ, यम, मृत्यु और और
इशान आदि है उन्हें पैदा किया. तह क्षत्रिय से उत्कृष्ट कोई नहीं है. इसी से
राजसूय यज्ञ में ब्रह्माण नीचे बैठकर क्षत्रिय की उपासना करता है, वह क्षत्रिय में
ही अपने यश को स्थापित करता है. यह जो ब्रह्म है क्षत्रिय की योनि है. इसलिए राजा
उत्कृष्टता को प्राप्त होता है, तो भी अंत में वह ब्रह्म का ही आश्रय लेता है. अतः जो
क्षत्रिय इस ब्रह्म का ( प्राण का ) नाश करता है वह अपनी योनि का ही नाश करता है.
जिस प्रकार श्रेष्ट की हिंसा करने से पुरुष पापी होजाता है, उसी प्रकार वह
पापी होजाता है. वैश्य ;---स नैव व्यभत्स
विशमसृजत यान्येतानि देव जातानि गणश आख्यायन्ते वसवो रुद्रा आदित्या विश्वेदेवा
इति !!१२!!वह( ब्रह्म ) इसके बाद भी विभूतियुक्त कर्म करने में समर्थ नहीं हुआ.
उसने वैश्य जाति रचना की. जो ये वसु, रुद्र, आदित्य, विश्व देव और मरुत इत्यादि देव गन गणश: कहलाते है इन्ही से
वैश्य उत्पन्न हुए. शूद्र:-------"स नैव व्यभत्स शौद्रं वर्णम सृजत पूषणमियं
वै पुषेनम हीदं सर्व पुष्यति यदिदं किन्च !!१३!!"अर्थात इसके बाद भी वह (
ब्रह्म ) विभुतियुक्त कर्म करने में समर्थ नहीं हुआ. तब उसने शूद्र वर्ण की रचना
की. पूषा शूद्र वर्ण है. यह प्रथ्वी ही पूषा है, क्योंकि यह जो कुछ है यही उसका पोषण करती है.
इसलिए पोषण ( पालन-परिपालन ) करना शूद्र का महान कार्य है.
बढ़िया लेख
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